- अनिल शास्त्री
मैं केवल आठ वर्ष का था जब दक्षिण भारत में एक भीषण रेल दुर्घटना के कारण मेरे पिता श्री लाल बहादुर शास्त्री ने केंद्रीय रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने मंत्री पर से इसलिए इस्तीफा दिया, क्योंकि वे रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी रेल मंत्री होने के नाते अपनी समझते थे। जब वे रेल मंत्री पद का कार्यभार नये मंत्री को सौंप कर लौटे तो उन्होंने मेरी तरफ देखा और शायद मुझे उदास समझ कर मुझसे पूछा कि क्या आपको खराब लग रहा है कि मैं अब देश का रेल मंत्री नहीं रहूंगा। मैंने तत्काल उत्तर दिया कि ऐसा नहीं है बल्कि मुझे खुशी कि अब आप अधिक समय हम लोगों के साथ व्यतीत कर सकेंगे। वे मुस्कुराये और मुझे प्यार करते हुए अन्दर कमरे में चले गये। लेकिन असलीयत में ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि मेरे पिता मंत्रीमंडल से इस्तीफा देने के पश्चात पार्टी के कार्य में और अधिक व्यस्त हो गये और पहले से भी कम समय परिवार को मिलने लगा। मैं और मेरे दूसरे भाई-बहन कभी-कभी उनसे शिकायत भी किया करते थे। लेकिन वे हमेशा मुस्कुरा देते और कहते कि देश सेवा करने का जितना अधिक मौका मिले, उतना उन्हें संतोष मिलता है। पिता रोज सुबह करीब सात बजे काम पर निकल जाते, जब मैं नींद में होता, और रात में करीब ग्यारह बजे लौटते, तब भी मैं सोया होता था। कभी-कभी एक-एक सप्ताह बीत जाता था और पिताजी से मेरी मुलाकात नहीं हो पाती थी। यह सिलसिला हमेशा चलता रहा। यहां तक कि जब वे प्रधानमंत्री बने और उसके बाद ताशकंद में उनकी मृत्यु हुई।
शास्त्री जी की सादगी और नम्रता उनके कई गुणों में से एक थी। इसके बावजूद कि वे ऊंचे पदों पर रहे, वे हमेशा सादा जीवन व्यतीत करते थे। जब वे प्रधानमंत्री बने तब मैंने उनसे कहा कि वे अपने कमरे में कालीन बिछवा लें लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। उनका कमरा भी हम लोगों के कमरों से छोटा था, बल्कि एक बरामदे में ही दीवाल उठवा कर बनवाया गया था।
वे कभी भी अपने विचार हम लोगों पर थोपते नहीं थे, हालांकि अपनी राय समय पर भाई-बहनों को दिया करते थे। जिन्हें हम अपने रोजमर्रा के जीवन में अपनाने की कोशिश करते थे। प्रधान मंत्री पद संभालने के बाद एक प्रेस कान्फ्रेन्स में एक अमेरीकी पत्रकार ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों कि उनके बच्चे फैशनेबल पैन्ट कमीज पहनते हैं और वे स्वयं सादा कुर्ता धोती पहना करते हैं। उन्होंने तत्काल उत्तर दिया कि वे एक गरीब स्कूल अध्यापक के पुत्र हैं, जब कि उनके बच्चों के पिता भारत के प्रधान मंत्री हैं। इस बात को बताने का मेरा ध्येय यह है कि बदलते हुए समय को वह पहचानते थे और अपने विचार हम लोगों पर जैसा कि मैंने पहले कहा थोपते नहीं थे।
मैं एक दिन रोज की तरह खाना खाकर रात को अपने पिता के कमरे में सोने के लिये गया। मेरी चारपाई उसी कमरे में होती थी जहां पर मेरे पिता सोते थे। मेरे कमरे में प्रवेश करने के कुछ ही मिनट पश्चात् शास्त्री जी बोले कि वे मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। कमरे में कोई और नहीं था और मैं सोचने लगा पता नहीं कौन सी बात होगी, जो वे मुझ से कहना चाहते हैं और ऐसे अवसर का इन्तजार कर रहे थे, जबकि कमरे में मेरे और उनके अतिरिक्त और कोई न हो। उन्होंने कहा-अनिल, मैंने ये देखा है कि आपको बड़ों के पैर छूकर प्रणाम करना नहीं आता। मुझे यह बात अच्छी न लगी। मैंने तुरन्त ही उत्तर दिया, नहीं मैं तो ठीक से प्रणाम करता हूं यह हो सकता है कि मेरे किसी और भाई से ऐसी गलती हुई हो। पिताजी ने मुझ से कहा कि ऐसी बात नहीं है। उन्होंने मुझ में ही गलती पाई थी। इस पर भी मैं अपनी बात पर डटा रहा। मैं यह समझता हूं कि अगर मेरे पिता के अलावा कोई और पिता होता तो शायद अपने पुत्र को या तो तमाचा मारता, या किसी और प्रकार का दंड देता। लेकिन मेरे पिताजी ने ऐसा न किया और मुझ से इतना ही कहा कोई बात नहीं, हो सकता है कि मेरे देखने में गलती हुई हो। हां मैं उम्र में आपसे बड़ा हूं, और आपका पिता हूं। इसलिये मैं आपको बताना चाहूंगा कि बड़ों को कैसे प्रणाम किया जाता है। मेरे देखते-देखते उन्होंने झुक कर अपने हाथों से मेरे पैर छुए और बड़े आदर के साथ प्रणाम किया, और इतना ही कहा अगर आप इस तरह प्रणाम करते रहे हैं तो मैं अपनी गलती मानता हूं, और अगर आप अपने प्रणाम करने में त्रुटि पायें तो आपको मैंने जो ढंग बताया है, उसे अपनाने की कोशिश करें। मैं शायद यह बताने में असमर्थ हूं कि मुझे मेरे पिता ने मेरी गलती की कितनी बड़ी सजा दी। मेरी आंखों में आंसू थे, और मैं अपनी गलती को अच्छी तरह से अनुभव कर रहा था। मैंने तुरन्त ही पिताजी से अपने व्यवहार के लिये माफी मांगी, और उन्हें वचन दिया कि जीवन में हमेशा जब कभी बड़ों को प्रणाम करूंगा तो मेरी पूरी चेष्टा रहेगी, कि उसमें कोई त्रुटि न रहे। वे मुस्कुराने लगे और कहने लगे कि मेरी आंखों में आंसू क्यों थे, जबकि उन्होंने मुझे मारना पीटना तो दूर रहा डांटा तक नहीं। मैं इतना कहकर चुप हो गया, कि अगर आप मुझे डांट लेते या पीट लेते, तो ज्यादा अच्छा होता, और न ही मेरी आंखों में आंसू होते।
भारत-पाकिस्तान की 1965 की लड़ाई में शास्त्री जी अत्यन्त लोकप्रिय हुये, इसलिये कुछ बातें उस समय की भी बताना चाहूंगा। करीब शाम के आठ बजे थे, और वे खाना खा रहे थे। हालांकि रोज रात में वो इतनी जल्दी खाना नहीं खाते थे। लेकिन उस दिन मुझे नहीं मालूम कि वे आफिस से जल्दी क्यों लौटे। खैर थोड़ी ही देर में उनके निजी सचिव ने आकर उनसे कहा कि जनरल चैधरी और एयर मार्शल अर्जुन सिंह उनसे मिलने आये हैं। उन्होंने खाना बीच में ही छोड़ दिया, और करीब दोनों सात मिनट में वे लौटे, और उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। हम सब घर वाले आश्चर्य कर रहे थे कि कौन सी ऐसी बात थी कि दो-दो सेनाध्यक्ष एक साथ प्रधानमंत्री से मिलने आये। जब हम लोगों ने उनसे पूछा तो उन्होंने इतना ही कहा कि पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया है। हम लोग हक्का बक्का रह गये। शास्त्री जी अत्यन्त सामान्य थे। उनके चेहरे पर जरा सी भी चिन्ता प्रकट नहीं हो रही थी। उन्होंने बताया कि जनरल चैधरी और एयर मार्शल अर्जुन सिंह को यह सूचना मिली है कि पाकिस्तानी सेना करीब सौ पेटन टैंक लेकर भारत की सीमा रेखा पार करने (छम्ब) में आगे बढ़ रही है। उन्होंने भारत के सेनाध्यक्ष को आदेश दिया है कि पाकिस्तान की सेना का पूरी ताकत से मुकाबला किया जाये। यह सब सुनकर, हम लोग थोड़ा घबरा रहे थे, लेकिन उन्होंने हम लोगों को ढाढ़स बंधाया और कहा कि उन्हें भारतीय सेना पर पूरा विश्वास है और युद्ध में भारत अवश्य विजयी होगा।
युद्ध के दौरान देश में खाने की समस्या थी और शास्त्री जी ने देशवासियों से आग्रह किया था कि हफ्ते में एक समय खाना न खायें। यह कहने से पहले उन्होंने खुद व्रत रखा था, और हम लोगों से व्रत रखने को कहा था और घर में सोमवार की शाम खाना नहीं बनता था। मैं और मेरे परिवार के लोग बाबूजी की याद में सोमवार की शाम आज भी खाना नहीं खाते हैं। यह घटना मैंने इसलिये बतायी क्योंकि मैं यह बाताना चाहता हूं कि पिताजी दूसरों को कुछ करने के लिये तब ही कहते थे, जब वे खुद का काम कर लेते थे। अगर वे हमें अपने जूते खुद साफ करने को कहते थे, तो वो खुद भी ऐसा ही करते थे। वे नौकरों को डांटने से मना करते थे, और हमनें भी उन्हें कभी भी नौकरों र क्रोध करते नहीं देखा। वे हमेशा कहते थे कि बड़ों से आदरपूर्वक बात करनी चाहिये, और खुद भी वे सबकी यहां तक कि हम छोटे बच्चों को भी आप कह कर सम्बोधित करते थे।
ताशकन्द जाने से कुछ ही दिन पूर्व शास्त्रीजी इलाहबाद से करीब 35 मील दूर एक गांव जिसे मांडा कहते हैं गये थे। मांडा एक पिछड़ा हुआ गांवहै जहां उस समय एक गिलास पानी भी करीब 50 पैसे का मिलता था। वहां बड़ी दयनीय स्थ्िाति को देखकर उनको अत्यंत दुख हुआ और उन्होंने अपने भाषणमें वहां के निवासियों के आश्वासन दिया कि ताशकन्द से लौटने के पश्चात मांडा के लिये कुछ करेंगे। परंतु विधात को यह मंजूर न था और उनकी सोवियत रूस में अचानक मृत्यु हो गयी। मेरी माताजी श्रीमती ललिता शास्त्री के मन में शास्त्री जी का वचन पूरा करने की ठन गई। बाबूजी की मृत्यु के एक ही वर्ष के अंदर मांडा के लिये हाई स्कूल और औरतों के लिये बुनाई, कढ़ाई का प्रबंध किया गया है। पिताजी को बुनी हुई खादी से विशेष लगाव था। इसलिये अम्बर चरखे का भी प्रबन्ध किया गया है। मांडा में निकेतन की ओर से माचिस भी बनाई जाती है, जिससे इस गांव के लोगों को काम मिल गया है और काफी हद तक बेरोजगारी उन्मूलन हुआ है।
मेरी मां के परिश्रम व जनता के सहयोग से शास्त्री सेवा निकेतन के केन्द्र अब मिर्जापुर, बनारस, बस्ती, फतेहपुर (उ.प्र.), जमशेदपुर (झारखंड) एवं इंदौर (म.प्र.) में शुरू हो गए हैं।
3 जनवरी, 1966 की सुबह मुझे याद है। मैं पलंग पर लेटा हुआ था। मेरे पिता लाल बहादुर शास्त्री ताशकन्द के लिए रवाना हो रहे थे करीब 7 बजे मेरे बगल से गुजरे और मेरे गाल थपथपाते हुए बाहर निकल गए। वह मेरी अपने पिता से आखिरी मुलाकात थी। (प्रस्तुति: मनुज फीचर सर्विस)