भारतीय राजनीति शलाका पुरूष - लाल बहादुर शास्त्री

  • रवि सक्सेना


भारतीय राजनीति में असाधारण व्यक्तित्व, सादगी, सच्चरित्रता की विरल प्रतिमूर्ति के रूप में यदि किसी राजनेता ने प्रतिमान स्थापित किये हैं तो अनायास ही पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की छवि अलौकित हो जाती है। सन् 1964 में जब भारत युद्ध में चीन से पराजित हो हताशा और निराशा के दौर से गुज़र रहा था आर्थिक और राजनैतिक बदहाली का वातावरण था। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चीन के विश्वासघात के दंश से मानसिक और शारीरिक रूप से आहत हो गंभीर अस्वस्थ्ता की स्थिति में देवलोक गमन कर गये तो मानों देश में अंधकार ही छा गया था। किसी ने नेहरू जी के इस प्रकार अचानक चले जाने की कल्पना ही नहीं की थी पूरे भारतीय जनमानस में बस एक ही प्रश्नचिन्ह था नेहरू के बाद कौन? ऐसी विषम परिस्थितियों में तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के. कामराज और उनकी कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि देश की बागडोर श्री लाल बहादुर शास्त्री को सौंपी जाय उन्हें सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री चुना गया। प्रधानमंत्री का पद कांटों भरे ताज के समान था पर शास्त्री जी ने अपनी दूरअंदेशी और कठोर निर्णयों के आधार पर देश की बिगड़ती आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों-परिस्थितियों को पटरी पर लाने का भागीरथी प्रयास किया।


भारत में गहरा अन्न संकट था अमेरिका से लाल गेहूँ मंगाना पड़ता था। पूंजीवादी देश अमेरिका जो पाकिस्तान का हिमायती था हमें अपमानित करने का प्रयास करता था। ऐसे समय भारत के स्वाभिमान को कैसे अक्षुण्य रखा जा सके ये सवाल लाल बहादुर शास्त्री को आन्दोलित करता था, उन्होंने देशवासियों से आव्हान किया कि यदि आप सब हफ्ते में सिर्फ एक वक्त का उपवास रख लें तो  हमें अमेरिका के सामने झुकना नहीं पड़ेगा। पूरे देश ने शास्त्री जी की बात का अनुसरण किया। मैं उस समय 7 वर्ष का था पर मुझे याद है कि सोमवार के दिन हमारे घर में भी सिर्फ एक वक्त भोजन बनता था। देशवासियों ने भारत के स्वाभिमान की रक्षा की और उसके प्रेणता थे श्री लाल बहादुर शास्त्री जी।


लाल बहादुर शास्त्री जी छोटे कद के थे और उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ थे जो भीमकाय कद काठी के व्यक्ति थे। पाकिस्तान उस समय भारत की सरजमीं पर गिद्ध दृष्टि लगाये बैठा था, उसे लगा कि चीन से हार के बाद भारत की सेना कमजोर हो गई है, निराशा के गर्त में होगी देश का प्रधानमंत्री भी एक छोटी कद काठी का व्यक्ति है। यह सही समय है कि हिन्दुस्तान को में युद्ध पराजित कर उसकी सरजमीं पर कब्जा कर लिया जाय। अयूब खाँ ने भारत के मनोबल को गिराने के लिये कहना चालू कर दिया ‘‘हम कभी भी टहलते-टहलते हुए ही दिल्ली तक पहुंच जायेंगे।‘’  इतिहास गवाह है कि शास्त्री जी के नेतृत्व में भारतीय सेनाओं ने ना पाकिस्तान को परास्त किया बल्कि लाहौर पर भारतीय परचम लहरा दिया तब तत्कालीन बी.बी.सी. के पत्रकार मार्क टुली ने शास्त्री जी से पूछा ‘‘आपने लाहौर पर झण्डा फहरा दिया’’ तब शास्त्री जी ने बड़ी सहजता से कहा ‘‘मियां अयूब दिल्ली आना चाहते थे हमने सोचा उन्हें क्यों जहमत दी जाय तो हम ही उन्हें लेने लाहौर पहुंच गये।‘’ पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद भारत ने अपना खोया हुआ मान और गौरव वापस ही नहीं पाया अपितु पूरी दुनिया में भारत की पहचान एक सशक्त, स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में स्थापित की।


लाल बहादुर शास्त्री जी जब ताशकंद समझौते के लिये रूस जा रहे थे तब पत्रकारों ने पूछा ‘‘आप नाटे कद के हैं, अयूब खाँ साढ़े छह फिट के शरीर के मालिक हैं, आप उनसे मुलाकात करेंगे तो कैसे व्यवहार करेंगे’’ तब शास्त्री जी ने कहा ‘‘मैं सर उठाके उनका इस्तकबाल करूंगा और वह सर झुका के मेरा अभिवादन करेंगे।‘’ ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी, दृढ़ता, साहस और सादगी की प्रतिमूर्ति श्री लाल बहादुर शास्त्री ने ना केवल भारत की अस्मिता को ही अक्षुण्य रखा वरन् हरित क्रांति, सेना के सर्वांगीण विकास के लिये भी अप्रितम प्रयास किये वहीं राजनीति में ईमानदारी, सच्चरित्रता और पवित्रता के उच्च मापदण्ड भी स्थापित किये। उनके अमर वाक्य ‘’जय-जवान, जय-किसान’’ को आज भी उसी शिद्दत से गुंजायमान किया जाता है जैसे पचास वर्ष पूर्व उद्घोषित किया जाता था।                


(प्रस्‍तुति: मनुज फीचर सर्विस)