आशा-निराशा के झूलों में झूलता रहा पूरा साल

जा रहे साल-2019 के नाम


-प्रो. संजय द्विवेदी



     किसी भी जाते हुए साल, बीते हुए समय को लोग याद कहां करते हैं। कई बार बीते दिन सुखद ही लगते हैं। फिर भी यह दिन नहीं है, साल है। वह भी 2019 जैसा। जिसने भारत की राजनीति, समाज, संस्कृति और उसके बौद्धिक विमर्शों को पूरा का पूरा बदल दिया है। जाते हुए साल ने नागरिकता संशोधन कानून(सीएए) के नाम पर सड़कों पर जो आक्रोश देखा है,यह संकेत है कि आने वाले दिन भी बहुत आसान नहीं हैं। कड़वाहटों, नफरतों और संवादहीनता से हमारी राजनीतिक जमातों ने जैसा भारत बनाया है, वह आश्वस्त नहीं करता। डराता है। राष्ट्र की समूची राजनीति के सामने आज यह प्रश्न है वह इस देश को कैसा बनाना चाहती है। यह देश एक साथ रहेगा, एकात्म विचार करेगा या खंड-खंड चिंतन करता हुआ,वर्षों से चली आ रही सुविधाजनक राजनीति का अनुगामी बनेगा। वह सवालों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल तलाशेगा या शुतुरर्मुग की तरह बालू में सिर डालकर अपने सुरक्षित होने की आभासी प्रसन्नता में मस्त रहेगा।


पुलवामा हमले से हिला देशः


     साल के आरंभिक दिनों में हुए पुलवामा हमले ने जहां हमारी आंतरिक सुरक्षा पर गहरे सवाल खड़े किए, वहीं साल के आखिरी दिनों में मची हिंसा बताती है कि हमारा सभ्य होना अभी शेष है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध का माद्दा अर्जित करने और गांधीवादी शैली को जीवन में उतारने के लिए अभी और जतन करने होगें। हम आजाद तो हुए हैं पर देशवासियों में अभी नागरिक चेतना विकसित करने में विफल रहे हैं। यह साधारण नहीं है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और अपने ही लोगों को ही प्रताड़ित करने में हमारे हाथ नहीं कांप रहे हैं। पुलवामा में 40 सैनिकों की शहादत देने के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हमारी नागरिक चेतना में कोई चैतन्य नहीं है।राजनीतिक लाभ के लिए भारतीय संसद में बनाए गए कानूनों को रोकने की हमारी कोशिशें बताती हैं कि विवेकसम्मत और विचारवान नागरिक अभी हमारे समाज में अल्पमत में हैं। यह ठीक है कि सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने नागरिकों में विश्वास की बहाली करें और उनसे संवाद करें। किंतु यहां यह भी देखना होगा कि विरोध के लिए उतरे लोग क्या इतने मासूम हैं और संवाद के लिए तैयार हैं? अथवा वे ललकारों और हुंकारों के बीच ही अपने राजनीतिक पुर्नजीवन की आस लगाए बैठे हैं। ऐसे समय में हमारे राजनीतिक नेतृत्व से जिस नैतिकता और समझदारी की उम्मीद की जाती है, क्या वह उसके लिए तैयार भी हैं?


मोदी हैं सबसे बड़ी खबरः


      इस साल की सबसे बड़ी खबर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हिस्से रही। लगातार दूसरी बार एक गैरकांग्रेसी सरकार का सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ आना भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। मोदी का जादू फिर सिर चढ़कर बोला और भाजपा 303 सीटें जीतकर सत्ता में वापस आई। 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं।  इसी के साथ मोदी ऐसे प्रधानमंत्री भी बन गए जिन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद तीसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने, दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस साल अपना पद छोड़ दिया और काफी मान-मनौव्वल के बाद भी नहीं माने। अंततः श्रीमती सोनिया गांधी को यह पद स्वीकार करना पड़ा।


       साल के आखिरी महीने की कड़वाहटों को छोड़ दें तो जाता हुआ साल 2019 कई मामलों में बहुत उम्मीदें जगाने वाला साल भी है। कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दो ऐसी बातें हैं जो इस साल के नाम लिखी जा चुकी हैं। इस मायने में यह साल हमेशा के लिए इतिहास के खास लम्हों में दर्ज हो गया है। भारतीय राजनीति में चीजों को टालने का एक लंबा अभ्यास रहा है। समस्याओं से टकराने और दो-दो हाथ करने और हल निकालने के बजाए, हमारा सोच संकटों से मुंह फेरने का रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद अरसे से एक ऐसे नायक का इंतजार होता रहा, जो निर्णायक पहल कर सके और फैसले ले सके। धारा 370 सही मायने में केंद्र सरकार का एक अप्रतिम दुस्साहस ही कहा जाएगा। किंतु हमने देखा कि इसे देश ने स्वीकारा और कांग्रेस पार्टी सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस फैसले की सराहना की।


मंदिर पर सुप्रीम फैसलाः


    राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम फैसला भी इसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण तारीख है। जिसने सदियों से चले आ रहे भूमि विवाद का निपटारा करके भारतीय इतिहास के सबसे खास मुकदमे का पटाक्षेप किया। तीन तलाक का मुद्दा एक ऐसा ही विषय था जिसने भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की जिंदगी में छाए अंधेरों को काटकर एक नई शुरुआत की। यह एक ऐसा विषय था जिसे आस्था और संविधान की बहस में उलझाया गया। लेकिन मानवीय और संवैधानिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा मुद्दा था। हालांकि स्त्री सुरक्षा के लिए यह साल भी बहुत उम्मीदें जगाकर नहीं गया। साल के प्रारंभ में उन्नाव दुष्कर्म कांड से लेकर साल के अंत में हैदराबाद की वेटनरी डाक्टर की निर्मम हत्या और दुराचार की घटनाओं ने बताया कि हमारे समाज में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हैदराबाद दुष्कर्म मामले के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल मार गिराया किंतु निर्भया मामले के अपराधियों को आज तक फांसी के फंदों पर नहीं लटकाया जा सका। कानून की बेचारगी इस सबके बीच चर्चा का विषय बनी।


सामान्य वर्ग को आरक्षण की राहतः     


    जनवरी महीने में सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण देने का बिल संसद ने पास किया। गुजरात इसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। इस कानून ने आरक्षण पर मचे बवाल पर सामान्य वर्गों को राहत देने की भावभूमि बनाई। इस साल के एक महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में प्रयागराज में कुंभ को भी याद किया जाएगा। इस कुंभ में 15 करोड़ लोगों ने स्नान किया और दुनिया के 190 देशों को आमंत्रण भेजे गए। कुंभ की व्यवस्थाओं को लेकर उप्र सरकार की काफी सराहना भी हुयी।


        इस साल ने हमें आशा, निराशा, उम्मीदों और सपनों के साथ चलने के सूत्र भी दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार युवाओं पर भारी उम्मीदें जता रहे थे। हम देखें तो भारत का स्टार्टअप तंत्र  जिस तरह से युवा शक्ति के नाते प्रभावी हुआ है, वह हमारी एक बड़ी उम्मीद है। सन 2019 में ही कुल 1300 स्टार्टअप प्रारंभ हुए। कुल 27 कंपनियों के साथ भारत में पहले ही चीन और अमरीका के बाद तीसरे सबसे ज्यादा यूनिकार्न (एक अरब से ज्यादा के स्टार्टअप) मौजूद हैं। भारत की यह प्रतिभा सर्वथा नई और स्वागतयोग्य है। वहीं दूसरी ओर मंदी की खबरों से इस साल बाजार थर्राते रहे। निजी क्षेत्रों में काफी लोगों की नौकरियां  गईं और नए रोजगार सृजन की उम्मीदें भी दम तोड़ती दिखीं। बहुत कम ऐसा होता है महंगाई और मंदी दोनों साथ-साथ कदमताल करें। पर ऐसा हो रहा है और भारतीय इसे झेलने के लिए मजबूर हैं। नीतियों का असंतुलन, सरकारों का अनावश्यक हस्तक्षेप बाजार की स्वाभाविक गति में बाधक हैं। भारत जैसे महादेश में इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद रह गयी थी, अगले छह माह में यह क्या रूप लेगी कहा नहीं जा सकता। इस साल पांच फीसदी की विकास दर भी नामुमकिन लग रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने अपने प्रारंभिक दो सालों में जो भी बेहतर प्रदर्शन किया, नोटबंदी और जीएसटी ने बाद के दिनों में उसके कसबल ढीले कर दिए। बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक प्रोसेनजीत दत्ता मानते हैं कि-यदि सहस्त्राब्दी का पहला दशक मुक्त बाजार सिद्धांत की अपार संभावनाओं वाला था तो यह दशक बेतरतीब सरकारी हस्तक्षेप वाला रहा। ऐसे में आने वाला साल किस तरह की करवट लेगा इसके सूत्रों को जानने के लिए मार्च,2020 तक नए बजट के बाद की संभावनाओं का इंतजार करना होगा। इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भारत की विदेश नीति में प्रधानमंत्री ने अपनी सक्रियता से एक नर्ई ऊर्जा भरी, किंतु भारत की स्थानीय समस्याओं, लालफीताशाही, शहरों में बढ़ता प्रदूषण, कानून-व्यवस्था के हालात ऐसे ही रहे तो उन संभावनाओं का दोहन मुश्किल होगा।


    उदारीकरण की इस व्यवस्था के बीज इस अकेले साल के माथे नहीं डाले जा सकते। 1991 से लागू इस भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारे गांवों, किसानों और सामान्य जनों को बेहद अकेला छोड़ दिया है। किसानों की आत्महत्याएं, उनकी फसल का सही मूल्य, जनजातियों के जीवन और सुरक्षा जैसे सवाल आज नक्कारखाने में तूती की तरह ही हैं। मुख्यधारा की राजनीति के मुद्दे बहुत अलग हैं। उन्हें देश के वास्तविक प्रश्नों पर लाना कठिन ही नहीं असंभव ही है। जाता हुआ साल भी हमारे सामने विकराल जनसंख्या, शरणार्थी समस्या, घुसपैठ, कृषि संकट, महंगाई, बेरोजगारी जैसे तमाम प्रश्न छोड़कर जा रहा है। सन 2020 में इन मुद्दों की समाप्ति हो जाएगी, सोचना बेमानी है। बावजूद इसके हमारे बौद्धिक विमर्श में असंभव प्रश्नों पर भी बातचीत होने लगी है, यह बड़ी बात है। हमें अपने देश के सवालों पर, संकटों पर, बात करनी होगी। भले वे सवाल कितने भी असुविधाजनक क्यों न हों। 2019 का साल जाते-जाते कुछ बड़े मुद्दों का हल देकर जा रहा है। नए साल-2020 का स्वागत करते हुए हमें कुछ नवसंकल्प लेने होंगें, नवाचार करने होंगे और अपने समय के संकटों के हल भी तलाशने होगें। अलविदा- 2019!