-प्रो. संजय द्विवेदी
सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग) के संसार का एक पुरजा हो।
हमारे आसपास की दुनिया अचानक कुछ ज्यादा जवान या आधुनिक हो गई लगती है। जिसमें परंपराएं तो हैं, पर कुछ सकुचाई हुई सी। संस्कृति भी है पर सहमी हुई सी। हमारे लोकाचार और त्यौहारों पर बाजार की मार और प्रहार इतने गहरे हैं कि उसने भारतीय विचार को बहुत किनारे लगा दिया है। अपनी चीजें अचानक पिछड़ेपन का प्रतीक दिखने लगी हैं और यह सब कुछ हो रहा है उन युवाओं के नाम पर जो आज भी ज्यादा पारंपरिक, ज्यादा ईमानदार और ज्यादा देशभक्त हैं, लेकिन बाजार विज्ञापन और पूंजी के गठजोड़ ने हमारे युवाओं की छवि कुछ ऐसी बना रखी है कि जैसे वह बाडी और प्लेजर (देह और भोग)के संसार का एक पुरजा हो।
तकनीक, उपभोक्तावाद, मीडिया, वैश्विक संस्कृति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्ववाद से ताकत पाता पूंजीवाद दरअसल आज के समय का एक ऐसा सच है, जिससे बचा नहीं जा सकता। ये चीजें मिलकर जिंदगी में उश्रृंखल और बेलगाम लालसाओं को बढ़ावा देती हैं। विज्ञापनों और मीडिया की आक्रामकता ने देह संस्कृति को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर हमारे जीवन पर आरोपित कर दिया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और रेडियो के नए अवतार एफएम पर जिस तरह के विचार और भावनाएं युवाओं के लिए परोसी जा रही हैं, उसने एक अलग किस्म के युवा का निर्माण किया है। क्या यह चेहरा भारत के असली नौजवान का चेहरा है? रातोंरात किसी सौंदर्य प्रतियोगिता या गायन प्रतियोगिता से निकलकर भारतीय परिदृश्य पर छा जाने वाले युवा देश के वास्तविक युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? दरअसल बाजार अपने नायक गढ़ रहा है और भारत की युवा पीढ़ी अपने जीवन संघर्ष में खुद को बहुत अकेला पा रही है। शिक्षा से लेकर नौकरी पाने की जद्दोजहद युवाओं को कितना और कहां तक तोड़ती है, यह देखने वाला कोई नहीं है। बाजार में दिखते हैं सिर्फ चमकीले चेहरे, मेगा माल्स, बीयर बार, नाइट क्लब, पब और डिस्को थेक। क्या भारत की नौजवानी यहीं पाई जाती है? क्या इन क्लबों में जवान हो रही पीढ़ी ही भारत के असली युवा का चेहरा है? दरअसल यह ऐसा प्रायोजित चेहरा है, जो संचार माध्यमों पर दिखाया जा रहा है। कुछ सालों पहले 'काफी कल्चर' की शुरूआत हुई थी। जब काफी हाउस में बैठे नौजवान आपसी संवाद, विचार-विमर्श और खुद से जुड़ी बातें किया करते थे। इनकी सफलता के बाद अब पब कल्चर की युवाओं की नजर है। ये पब कल्चर दरअसल न्यूयार्क के पैटर्न पर हैं, एक नई तरह की संस्कृति को युवाओं पर आरोपित करने का यह सिलसिला इस नए बाजार की देन है। एक बार पी लेने के बाद सारे मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह टूट जाने का जो भ्रम है, वह हमें इन पबों की तरफ लाता है। नशे का भी संसार इससे जुड़ता है। यहीं से कदम बहकते हैं, बार या पब कल्चर धीरे-धीरे हमें अनेक तरह के नशों के प्रयोग का हमराही तो बनाता ही है, कंडोम से भी हमारा परिचय कराता है। कंडोम के रास्ते गुजरकर आता हुआ प्यार एक नई कहानी की शुरूआत करता है। हमारे युवक-युवतियां अधिक प्रोग्रेसिव दिखने की होड़ में इसका शिकार बनते चले जाते हैं पर आज भी ऐसा कितने लोग कर रहे हैं? वही करते हैं, जिनके माता-पिता ने बहुत सा नाजायज पैसा कमाया है और उनके पास अपने बच्चों को देने के लिए वक्त नहीं है। फेंकने के लिए पैसा हो और अक्ल न हो, तो यह डिस्पोजल पैसा किसी भी पीढ़ी को बर्बाद कर सकता है। इसके साथ ही काल सेंटरों में काम कर रही पीढ़ी के पास अचानक ढेर सा पैसा आया है। ये ऐसे ग्रेजुएट हैं, जिन्हें दस हजार से लेकर 40 हजार रूपए तक महीने की तनख्वाह आसानी से मिल जाती है। जाहिर है मान्यताएं टूट रही हैं। भावनात्मक रिश्ते दरक रहे हैं। माता-पिता से संवाद घटा है। इस विकराल समय में भी जोड़ने वाली चीजें खत्म नहीं हुई हैं। भारतीय युवा का यह चेहरा उसकी मैली आधुनिकता को दिखाता है। दूसरा चेहरा बेहद पारंपरिक, ज्यादा धार्मिक और ज्यादा स्नेही दिखता है। ऐसे भी नौजवान हैं, जो अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर गिरिवासियों, वनवासियों और ग्रामीणजनों के बीच जाकर बेहतर काम कर रहे हैं। एक पीढ़ी ऐसी है, जो बाडी और प्लेजर के संसार में थिरक रही है, तो दूसरी पीढ़ी इक्कीसवीं सदी के भारत को गढ़ने में लगी है। सवाल यह है कि हम किस पीढ़ी के साथ खड़े होना चाहेंगे?