वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता का दर्पणः मिस टीआरपी   

                      


हिन्दी मीडिया को केन्द्र बिन्दु बनाकर लिखी गयी एक किताब- 'मिस टीआरपी' इन दिनों काफी चर्चा में है। जहाँ इस किताब को समीक्षकों ने काफी सराहना की है, वहीं पाठकों ने भी इस किताब का दिल से स्वागत किया है। किताब के प्रकाशक ने बताया कि इस किताब को हिन्दी के नियमित पाठक-वर्ग के साथ उन लोगों ने पसन्द किया है, जो स्वयं पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं या पत्रकारिता की अन्दरूनी दुनिया में झांकने में रुचि रखते हैं।


पत्रकारिता और इससे जुड़े हुए लोगों को आधार बनाकर लिखी गयी किताब 'मिस टीआरपी' एक नये प्रयोग के रूप में पाठकों के सामने आयी है। पत्रकारिता की दुनिया की कहानी होने की वजह से जहाँ यह किताब पत्रकार वर्ग में काफी लोकप्रिय हुआ है, वहीं पत्रकारिता की दुनिया को समझने की जिज्ञासा रखने वाले आम पाठकों को भी यह किताब काफी खींच रहा है।  हास्य-व्यंग की शैली में लिखी गयी इस किताब की सहज और प्रवाहमयी भाषा, शिल्प का आकर्षण और कथ्य की गम्भीरता पाठकों को शुरू से अन्त तक अपने सम्मोहन में बांधे रहती है, वहीं उसे हँसाते और गुदगुदाते हुए वर्तमान में हिन्दी मीडिया में आयी विसंगतियों पर सोचने के लिए बाध्य भी करती है। यह किताब उन सवालों को भी सामने रखती हैं, जिन्हे वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता में आयी वसंगतियों ने जन्म दिया है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनसे हरेक मीडियाकर्मी वाकिफ होते हैं, लेकिन उन्हे सामने रखने में हिचकते हैं।


'मिस टीआरपी' को अगर वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह किताब जहाँ आम पाठकों को पत्रकारिता की अन्दरूनी दुनिया से परिचय कराती है, वहीं मीडियाकर्मियों को वैसे चरित्रों और घटनाओं से रू-ब-रू कराती हैं, जिनसे वह दो-चार होते रहते हैं। यही वजह है कि इस किताब में वर्णित अधिकांश घटनाएँ और पात्र पाठकों को (पत्रकारिता से जुड़े लोगों) जानी-पहचानी लगती है।


इस किताब के लेखक अवनीन्द्र झा खुद पत्रकार है और उन्होने कई मीडिया संस्थानों में काम किया है। लिहाजा पत्रकारों के काम करने की शैली, उनकी सोच, उनके काम करने के अन्दाज उनकी आशा-निराशा और मीडिया हाउस के माहौल का बारीक चित्रण किया है। यही वजह है कि पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े किसी भी शख्स को इसमें वर्णित हर एक घटना जाना-पहचाना लगता है, तो कहानियों में आने वाले सभी किरदार भी परिचित लगते हैं।  इन्ही कुछ परिचित पात्रों और परिचित घटनाओं में जब एक पत्रकार पाठक के रूप में अपनी पीड़ा और अपने विचारों को देखता है तो सहज ही उसे किताब से लगाव हो जाता है। 'दुबेजी का स्क्रिप्ट' में किया गया कैंटीन के माहौल का यह जिक्र टीवी चैनल में काम कर चुके सभी पत्रकारों को एकदम जाना-पहचाना लगेगा- “मटन और चिकेन सर्व होने की प्रतीक्षा में कैंटीन के टेबुल पर बैठा पत्रकार सामाजिक मूल्यों पर चिन्तन करता है। मटन और चिकन नोचकर खाते हुए की देश की राजनीतिक बदहाली पर चिन्ता जाहिर करता है। लेकिन पंद्रह तारीख के बाद कैंटीन का माहौल बदल जाता है। चाट और पकौड़े के साथ देश-विदेश की बातें करने वाला पत्रकार अब सिगरेट के धुएँ के साथ अपनी भड़ास उगलते हुए दिख जाता है।” किताब के अलग-अलग कहानियों में बंटे होने के बावजूद अगली कहानी के लिए उत्सुकता और रुचि बनी रहती है। 


सन्मति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब में 132 पृष्ठ एवं 18 कहानियाँ हैं। इस किताब में कुल 18 कहानियाँ संकलित हैं। इनमें से 16 कहानियाँ अखबारों और चैनलों के पत्रकारों और उनकी गतिविधियों पर आधारित हैं, जबकि दो कहानियाँ भारतीय लोकतंत्र के महान पर्व चुनाव पर आधारित हैं। किताब की शुरुआत में दुबेजी का स्क्रिप्ट के बहाने टीवी चैनल के पत्रकारो की जीवन शैली और यहाँ पर चलने वाली कूटनीति को दिखाया गया है। जबकि विज्ञापन किस तरह से पत्रकारिता को निगलता जा रहा है इस बात को 'टाइगर का बर्थडे' में बेहतर तरीके से दिखलाया गया है। किताब के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पत्रकारिता के वास्तविक जनकल्याणकारी स्वरूप और पत्रकारों की जिम्मेवारी से परिचय कराते हैं। अवनीन्द्र झा की लिखी इस किताब को सन्मति पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। कुल 132 पृष्ठों की इस किताब का मूल्य 200 रुपये है। किताब का कवर काफी आकर्षक है और पाठकों को अपनी ओर खींचता है। हालांकि किताब में किताब के अन्दरूनी पन्नों पर ले-आउट एवं प्रूफ सम्बन्धी त्रुटियां सहज ही दिख जाती हैं।